"मनोज शर्मा "
भारत कृषि प्रधान देश है और छत्तीसगढ़ उसके धान का कटोरा। ऐसे में किसान यहां की आत्मा है। धान की फसल पर निर्भर सत्तर फीसदी आत्माएं दो माह से खाद और बीज के लिए तड़प रही हैं। आखिर क्यों। रोपा और बोवाई का समय निकला जा रहा है जो पहले रोपा लगा चुके हैं उनका धान लगातार बारिश से सड़ रहा है। ऐसे में दोहरी मार से ये किसान रूपी आत्माएं कराह रही हैं। कहने को तो हम ट्रिलियन इकानामी वाले देश हैं और स्वदेशी, लोकल वोकल का नारा दे रखे है लेकिन जमीनी हकीकत है कि मांग की आधी खाद का भी उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं या किसानों को खाद बीज की पर्याप्त आपूर्ति नही कर पा रहेे हैं।
सरकारी कोशिशे नाकाफी हैरत की बात है कि राज्य में डबल इंजन की सरकार है फिर भी इस मसले में केन्द्र और राज्य के बीच समन्वय की कमी से यहां समस्या गहराई हुई है। असल में खाद का कोटा केन्द्र सरकार तय करती है। इसमें होने वाली देरी और कमी के साथ राज्य में इसका वितरण और प्रबंधन सही ढंग से नहीं हो पाता। इससे किसान हर साल की तरह इस साल भी त्राहि त्राहि कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सारे मामले में सरकारें ही दोषी हैं। खेल तो कालाबाजारी और मुनाफाखोरी करने वाले खेलते हैं । जब किसानों को जरूरत होती है यानी किल्लत होती है तब स्टाक छुपाकर जमाखोरी की जाती है। यही से शुरू होती है खाद की कालाबाजारी। इस साल तो सरकार ने इनकी धरपकड़ की कोशिस भी की है। स्टाक और पीओएस मशीन से खाद बिक्री करने पर कड़ाई की गई। केन्द्र सरकार ने करीब साढ़े आठ सौ डीलरों पर नजर रखने का निर्देश दिया लेकिन क्या करें सिस्टम ही भ्रष्टाचार के खेल में शामिल हो जाए तो सारी कोशिसें फेल हो जाती हैं।
ऊंची आवाज सुनता है सिस्टम.
हर साल खरीफ और रबी के मौसम में यूरिया, पोटाश, डीएपी, और काम्पलेक्स खादों की मांग बढ़ जाती है। इसका पता पूरे तंत्र को होता है फिर पानी सिर पर आते तक हमारा सिस्टम हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। किसान जब सारे दिन सहकारी समितियों में लाइन लगाकर खड़े रहते हैं और खाली हाथ, टूटे मन से लौटते है, तब जाकर चीख पुकार मचती है। इसके बाद प्रशासन का बहरा सिस्टम यह ऊंची आवाज सुन पाता है। फिर हड़बड़ी में दो चार दुकानदारों और बिचौलियों को पकड़ धकड़ करके खानापूर्ति कर ली जाती है। साल दर साल यही होता आ रहा है लेकिन अब ठोस नीतियां बनाकर काम करने की उम्मीद डबल इंजन सरकार से की जा रही है।
कोटा सिस्टम से गहराता संकटराज्य सरकार ने केन्द्र सरकार से जितनी खाद मांगी थी। उसमें 45 फीसदी की कटौती झेलनी पड़ी तो किल्लत तो होगी ही और कालाबाजारी का जन्म भी होगा।
हां, एक बात और चीन से से भी इस बार खाद कम आई जिससे यहां नकली खाद ने जन्म ले लिया। सब मिलाकर कहीं न कहीं नीतियों में कमी रह गई जिससे ज्यादा हायतौबा मची। इसी तरह बीज की आपूर्ति भी केन्द्र से 25 फीसदी कम रही। इस कड़ी में खाद और बीज की मांग और आपूर्ति भी चौंकाने वाली है। राज्य ने डीएपी 3.10 लाख टन मांगी थी लेकिन मिली सिर्फ 1.10 लाख टन। इसी तरह यूरिया की मांग 7.12 लाख टन के जवाब में 3.59 टन मिला। बीज 4.32 टन मांगे गए थे लेकिन मिले महज 3.83 लाख टन।
वाह! विदेशों से मंगाते हैं बीज.
बीज उत्पादन का तो और ही बुरा हाल है। इसके लिए बीज निगम संचालित है जो ऐसे समय में सफेद हाथी साबित होता है। इसका अनुदानित बीज पूरी मात्रा में किसी भी साल किसानों को नहीं मिल पाता। बीज उत्पादन के लिए यहां प्रयास नहीं होते इसलिए बीज हमको विदेशों से आयात करना होता है। जो समय से नहीं हो पाने की सजा किसानों को भुगतनी पड़ती है। हम इलेक्ट्रिक कार, माइक्रोचीप, ऐपल मोबाइल जैसे विनिर्माण इकाइयों की स्थापना पर फोकस कर सकते है लेकिन स्थानीय स्तर पर बीज और खाद का निर्माण आखिर हमारे बस में क्यों नहीं है। या फिर दूसरी वजह है कि ऐसा हम करना नहीं चाहते।
ये हैं चुनौतियां.
१.कालाबाजारी रोकने निगरानी तंत्र कमजोर.
२.खाद बीज वितरण का डिजिटलीकरण.
३.बीज उत्पादन के लिए स्थानीय प्रयास.
४. उन्नत बीज-जैविक खाद पर भरोसा जगाना.
समाधान के लिए उपाय.
१. सहकारी समितियों और निजी दुकानों से खाद वितरण का डिजिटलीकरण.
२. पीओएस मशीन, ऐप के माध्यम से ही ब्रिकी का तंंत्र विकसित किया जाए.
३. आर्गेनिक खेती और फसल चक्र परिवर्तन के अन्य फसलों को बढ़ावा दें.
४. रसायनिक खाद के बजाए बायो, हरी और जीवाणु खाद पर जोर दिया जाए.
५. जमाखोरी, कालाबाजारी और सहकारी कर्मचारियों पर कार्रवाई का विधान हो.
६. किसानों के समूह से गांव में ही बीज बैंक बनाकर उपलब्धता बनाई जाए.



