बेबाक: साल के कटते जंगलों से गहराता हाथी- मानव संघर्ष.

' मनोज शर्मा '



• पानी के लिए होता था टकराव अब ठौर ठिकाने के लिए होगा खूनी संघर्ष.


हम बिजली पानी और सडक़ की समस्या को लेकर चीख पुकार कर रहे हैं और उधर दबे पांव धान के कटोरे में मौत की दहशत गांव से शहर की ओर धीरे धीरे बढ़ रही है। जरा सोच कर देखें क्या होगा, जब हाथियों का झुण्ड आपकी दहलीज पर आ जाए। उसके एक धक्के से घर ढह सकता है तो फिर जानमाल का कितना नुकसान होगा। पुल- पुलिया, पानी टंकी, सडक़ पर वाहन आदि कुछ नहीं बचेगा। इन गजराजों के शहर में आने की कल्पना मात्र से लोग कांप उठते हैं। लेकिन सच भी यह है कि आधा छत्तीसगढ़ इस समस्या से घिरता जा रहा है।




पहले वन्य जीवों और इंसानों के बीच संघर्ष अपने- अपने दाने पानी के लिए होता था। पर अब खतरा जंगलों के लाखों पेड़ कटने से वन्य जीवों के ठौर ठिकाने छिन जाने से है। तब सोचिए वे सब कहां जाएंगे और क्या करेंगे। उत्तर और मध्य छत्तीसगढ़ यानी रायगढ़, कोरबा, गौरेला पेण्ड्रा रोड मरवाही और सरगुजा इलाका इसकी चपेट में है। फिर यह संकट पूर छत्तीसगढ़ में फैलेगा, तब क्या होगा। बीते दस सालों से यह समस्या प्रदेश में है पर किसी ने इसके हल के बारे में नहीं सोचा। साउथ में तो इस पर फिल्म भी बन चुकी है लेकिन यहां के लोग इस समस्या को हंसी मजाक में ले रहे हैं। अभी गौरेला पेण्ड्रा में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें लोग पत्थर लेकर हाथी के पीछे पड़े हुए थे। छत्तीसगढ़ में अनुमानित साढ़े तीन सौ से अधिक वन्य हाथी हैं, जो दल बनाकर विचरण करते हैं। इनके आने- जाने का कारीडोर सरीका तय मार्ग होता है। धरमजयगढ़ छाल होते हुए कोरबा कुदमुरा से होकर ये मरवाही पेण्ड्रा तक जाते और आते हैं। इसके अलावा भोजन पानी कि फिराक में कोरबा होकर हसदेव क्षेत्र से सरगुजा आते जाते हैं। इस मार्ग में जो कुछ पड़ता है उसे रौंदते जाते हैं।


असल में हाथियों को धान और शराब की गंध बेहद पसंद है। इसके लिए वे भटककर खेतों की और कच्ची शराब के ठिकाने पर जाते हैं जिससे उनका आदिवासियों से द्वंद साल दर साल होता आ रहा है। इसमें इंसानों की मौत के आंकड़े भी डराने वाले हैं। बीते दस सालों से मौतों में अच्छी खासी बढ़ोतरी देखी जा रही है।



वर्ष 2010 गजराजों की संख्या सिर्फ सौ थी जो दस सालों में यानी 2020 में बढक़र ढाई सौ के पार हो गई। अब 2024 के आते इनकी संख्या साढ़े तीन सौ से चार सौ हो चुकी है। असल में ओडिशा और झारखंड के हाथी भी यहां आते और जाते हैं, इसलिए ठीक ठीक अनुमान यहां का वन विभाग नहीं लगा पाता। जैसे जैसे इनकी संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे सुदूर जंगल क्षेत्र में बसे मानवों से संघर्ष भी बढ़ता जा रहा है। हर साल इंसानी मौतों के आंकड़े भी बढ़ रहे हैं। वर्ष 2010 से लेकर अब तक हाथियों के हमले से मरने वालों की संख्या देखी जाए तो यह हजार को पार कर गई है। राष्ट्रीय राजमार्गों पर हादसे में मौतों को रोकने के लिए हमारा सिस्टम क्या कुछ नहीं करता लेकिन वन विभाग ने हाथियों से मौत या खुद हाथियों की मौतों को रोकने के लिए जो कुछ किया वह ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा।


दफन हो गए प्रोजेक्ट.


ऐसा नहीं कि पिछली सरकारों ने इस बारे में कुछ सोचा नहीं। लेमरू प्रोजेक्ट और जामवंत प्रोजेक्ट बनाए गए थे। रकम भी दी गई थी, जो बंदरबांट हो गई। दरअसल इस प्रोजेक्ट में इन जंगली जानवरों के लिए फलदार पौधे लगाने की योजना थी। दस से पन्द्रह सालों में पेड़ लगे न उनमें फल आया। बजट नहीं आया तो इन प्रोजेक्ट की फाइलें भी डस्टबीन में चली गई। नतीजा साल दर साल हाथी और मानव अपने ठिकाने और भोजन के लिए लड़ते और मरते रहे। जंगलों में वैसे भी कोई जीए या मरे नेता और अफसरों को क्या फर्क पड़ता है। अभी राजधानी या न्यायधानी में कोई हाथी का दल भटककर आ जाए (एक बार आ चुका है) और एक दो को मार दे तो फिर देखो कैसे सिस्टम हरकत में आएगा। सब के सब स्वत: संज्ञान लेने लग जाएंगे।


लाखों दुर्लभ पेड़ कट रहे हैं पता नहीं किसके नाम.


पूरे प्रदेश में लोग व्याकुल हैं, अपनी अपनी मां के नाम एक पेड़ लगाने में। इस अभियान की पब्लिसिटी देखकर तो लगता है कि साल दो साल में ही नया जंगल छत्तीसगढ़ में खड़ा हो जाएगा। खैर, सरकारी अभियान की कही और करी बातों से प्राय: सभी सुविज्ञ हैं। सबको पता है कि बिलासपुर को मैंगो सिटी बनाने के लिए एक अभियान चला था। दो चार साल सिर्फ आम के ही पौधे प्रशासन ने बंटवाए और लगवाए थे। लेकिन आज कहीं तो आम की बगिया दिखती और कोई तो आम खा पाता। हम नहीं कह सकते है। एक पेड़ मां के नाम का भी वही हश्र होगा। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन उन बापों का क्या कीजिएगा, जो लाखों दुर्लभ साल के पेड़ों को काटकर कोयले का भंडार खाली करने आए हैं। शायद आपको भी पता हो कि साल के इन पेड़ों का प्लांटेशन नहीं होता और ना ही ये बीज से लगाए जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड को यह प्रकृति का वरदान है। मगर कोयले के लोभ में इनकीबलि चढ़ रही है। क्या इन पेड़ों की आह नहीं लगेगी? इन पेड़ों के घने साये में डेरा डालने वाले वन्य जीव खासकर हाथी फिर कहां जाएंगे।


कोई गारंटी कि हाथियों के इलाकों में होने वाली ब्लास्टिंग से चिढक़र जंगली गजराज अपना क्रोध लोगों पर नहीं निकालेंगे। गारेपलमा के बाद केते एक्सटेंशन का टेंशन

सरगुजा कोरबा रायगढ़ प्रक्षेत्र में खोली जाने वाली कोयला खदान गारेपलमा हो या केते एक्सटेंशन दोनों ही पेड़ों और वन्य जीवों के लिए खतरा बनने जा रही है। कौन आवाज उठाएगा, इनको बचाने के लिए। कोई नहीं क्योंकि माया किसको बुरी लगती है। ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ के भोले भाले लोग विकासद्रोही हैं। लेकिन एक सवाल तो है कि जितना विनाश होगा उतना छत्तीसगढ़ का विकास होगा क्या। नहीं ना। तब भी ये खामोशी वन्य जीवों और मानव के बीच गहराते संघर्ष का संकेत नहीं तो और क्या है। सोच कर देखना कि रायगढ़ क्षेत्र में शेर के पांव के चिन्ह हाल ही में देखे गए हैं। वहां कोई ठीक से सो पाता होगा क्या या फिर स्वच्छंद होकर घूम फिर पाता होगा क्या। औद्योगिक विकास होना चाहिए पर लोगों की जान की कीमत पर हो तो सभ्य समाज उसे कैसे स्वीकार कर पाएगा। क्या बिगड़ जाता उन बापजादों का जो कोयला खनन के लिए ओपन की बजाए अंडर ग्राउंड माइन्स डाल लेते और ले जाते जितना चाहते कोयला। थोड़ी कास्ट ही तो ज्यादा आती पर किसी की जान तो नहीं जाती। पर नहीं, पूरा मुनाफा चाहिए पूंजीपतियों को। अब ओपन कास्ट माइन्स की ब्लास्टिंग से इलाके थर्राएंगे और जान के लाले पड़ेंगे तब शायद बहरा सिस्टम जाग पाए।





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