बड़का साहेब ने चंद रोज में ही समझा दिया कि भइया काम तो करना पड़ेगा..

‘राजकुमार सोनी’

देश में इन दिनों रानू मंडल की सर्वाधिक चर्चा कायम है तो इधर छत्तीसगढ़ में आरपी मंडल के कामकाज का अंदाज छाया हुआ है. रानू मंडल और आरपी मंडल की पृष्ठभूमि बिल्कुल अलग-अलग है, लेकिन कुछ बातें ऐसी है जिनमें थोड़ा सा साम्य नजर आता है. रानू ने अपनी किस्मत से मुफलिसी को चुनौती देकर खुद को एक सितारा बनाया है तो इधर छत्तीसगढ़ में मंडल का काम खुरदरी जमीन पर खनक और चमक पैदा करता है.

भारतीय प्रशासनिक सेवा 1987 बैच के अफसर आरपी मंडल इन दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव है, लेकिन दूर-दराज के लोग जब राजनीति और प्रशासनिक कामकाज को लेकर जानकारियों का आदान-प्रदान करते हैं तो यह कहना नहीं चूकते- यार… पता चला है तुम्हारे यहां के सीएम जितने लो-प्रोफाइल है उतने ही बड़का साहेब भी है. चलो अब जाकर सोने पर सुहागा हो गया.

बड़का साहेब से मतलब… चीफ सेक्रेटरी से है. छत्तीसगढ़ में अगर किसी के आगे-पीछे बड़का- छुटका… जैसा शब्द चस्पा हो गया तो समझिए कि लोग उसे प्यार करते हैं.आदर देते हैं. भरोसा करते हैं. प्रशासनिक अकादमी के पूर्व अध्यक्ष बीके एस रे कहते हैं- मंडल पर लोग इसलिए भरोसा नहीं करते कि वे कि वे बिलासपुर और रायपुर के कलक्टर रहे हैं. या कई बड़े पदों को सुशोभित करते रहे हैं बल्कि उन पर भरोसे की एक बड़ी वजह यह भी है कि वे जिस काम को अपने हाथ में लेते हैं उसे पूरा करके छोड़ते हैं. वे परिणाम देने वाले हार्ड वर्कर है.

पिछले कुछ समय से छत्तीसगढ़ के मंत्रालय में मुर्दनी छाई रहती थीं. अफसरों और कर्मचारियों में कोई मुस्तैदी तभी दिखाई देती थीं जब मुख्यमंत्री मंत्रालय पहुंचते थे, लेकिन अब जाकर मंत्रालय का सन्नाटा टूटा है. नाम न छापने की शर्त पर एक अफसर कहते हैं- जिस दिन यह तय हो गया था कि प्रदेश के नए चीफ सेक्रेटरी आरपी मंडल होंगे उसी दिन यह भी साफ हो गया था कि अब कुछ नया होगा. अगर कोई क्रियेटिव है तो जाहिर सी बात है कि क्रियेशन का प्रभाव सब पर पड़ेगा. मंडल जिस फुर्ती से काम करते हैं उन्हें देखकर भला कोई कब तक फाइलों को लाल बस्ते में बांधकर आलमारी के हवाले कर सकता है. अफसर ने कहा- प्रदेश में अब तक जितने भी चीफ सेक्रेटरी बने हैं उनके पीछे किसी न किसी कद्दावर नेता या अफसर का ठप्पा हुआ था. प्रदेश के एक चीफ सेक्रेटरी के बारे में यह बात विख्यात थीं वे संविदा में पदस्थ सुपर सीएम के रिश्तेदार थे तो दो अफसर सिर्फ इसलिए चीफ सेक्रेटरी बनाए गए थे कि उनके जरिए सारे गलत-सलत कामों पर चिड़िया बिठवाई जाती थीं.

प्रदेश के एक अन्य अफसर का कहना है- पहले जितने भी नामों के आगे या पीछे सिंह लगा हुआ था वे सभी पूर्व मुख्यमंत्री के रिश्तेदार बन गए थे. कुछ तो वास्तव में थे भी, लेकिन कुछ ने दूर-दराज इलाके में घुसपैठ करके खुद को चाचा-मामा, ताऊ साबित कर लिया था. एक चीफ सेक्रेटरी जिसके नाम के पीछे सिंह लगा हुआ था, वे भूपेश सरकार में भी कुछ दिनों सीएस के पद पर काबिज थे, लेकिन उन्होंने कभी भी आगे होकर राज्य के अधिकारियों और कर्मचारियों को यह नहीं बताया कि सरकार क्या चाहती है ? सरकार का विजन क्या है? शायद पुरानी सरकार का हैंगओवर उतरा नहीं होगा इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री को भी यह नहीं बताया होगा कि योजनाओं को धरातल में उतारने के लिए प्रशासन क्या-क्या काम करता है. कैसे काम करता है ?

इधर अब जाकर प्रशासनिक गलियारे में यह मैसेज गया है कि भइया… जिसे चीफ सेक्रेटरी बनाया गया है वह काम करने वाला है. काम करोगे तो ही पीठ थपथपाई जाएगी. शाबाशी मिलेगी… लल्लो-चप्पो करने से काम नहीं चलेगा.

मंडल ने दो-दिन बैठकों में ही अपने तेवरों से छोटे-बड़े सभी तरह के अफसरों को यह समझा दिया है कि वे काम का परिणाम चाहते हैं. आज भी जब कभी लोग रायपुर और बिलासपुर के कलक्टर कार्यालय कायाकल्प देखते हैं तो जेहन में पहला नाम आरपी मंडल का ही आता है. रायपुर में कई जगह की चौड़ी सड़कों से गुजरते हैं तो उन्हें धन्यवाद नहीं भूलते. उनके नाम के साथ एक बात तो जुड़ी हुई है कि वे जब भी कुछ करेंगे तो नया और बेहतर करेंगे. यह मामला किस्मत से ज्यादा लोगों से हासिल हुए भरोसे का है. बहुत कम अफसरों को ऐसा भरोसा हासिल हो पाता है. इधर हाल के दिनों में जब वे स्कूटी लेकर शहर का मुआयना करने निकले तो शहर के लोगों को यकीन हुआ कि चलो अब शहर वास्तव में थोड़ा साफ-सुथरा दिखाई देगा. अन्यथा हर सुबह गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल… गाना सुन-सुनकर कान पक गया था. मंडल के मुआयने से यह भी लगा कि अब महापौर प्रमोद दुबे की मुश्किल भी थोड़ी आसान हो जाएगी. अब तक शहर के लोगों ने कलक्टर-एसपी और नेताओं का मुआयना देखा था. पहली बार एक चीफ सेक्रेटरी सूट-बूट और टाई के बजाय हैलमेट पहनकर उनके सामने था तो लोग खुश हुए. शहर के एक नागरिक मनीष शर्मा कहते हैं- मंडल साहब जब अल-सुबह मुआयना कर रहे थे तब मैं भी घूमने निकला था. वे जिस ढंग से लोगों से मिल-जुल रहे थे तो मुझे लगा ही नहीं कि वे चीफ सेक्रेटरी है. उनका व्यवहार बेहद सामान्य था. उनकी बातों को सुनकर ही इस बात का यकीन हो गया कि बंदे में दम है. इस शख्स की बात को कोई भी नहीं टालेगा. मुझे वे लो-प्रोफाइल होते हुए भी बेहद पावरफुल लगे.

यह सही है कि मनीष की तरह ही प्रदेश के ज्यादातर लोग बड़का साहेब को लो-प्रोफाइल मानते हैं. वे छोटे-बड़े सबसे एक सामान भाव से मिलते हैं. जो कोई भी उनसे पहली बार मिलता है उनका अपना होकर रह जाता है. इधर मंत्रालय में पदस्थ कुछ अफसर उनके लो-प्रोफाइल वाले अंदाज की दबे-दबे ढंग से आलोचना भी करते हैं.आलोचना का मुख्य स्वर यहीं है कि एक आईएएस को बाबू और चपरासी से गले नहीं मिलना चाहिए. हाथ नहीं मिलाना चाहिए.

आर्थिक रुप से कमजोर और गरीबों को हिकारत की नजर से देखने वाले अफसर ऐसा कहते हुए यह भूल जाते हैं कि हर आदमी अपनी जगह खड़े रहकर देश के लिए ही काम कर रहा होता है. हर आदमी के भीतर एक मकसूद बैठा रहता है जो मात्र एक जादू की झप्पी से पिघल जाता है. अगर आपने मुन्ना भाई एमबीबीएस देखी हो तो उसमें एक पात्र है मकसूद. यह पात्र झाडू-पोंछा लगाने का काम करता है. मकसूद दुखी होकर इसलिए चिल्लाते रहता है कि कोई भी उसकी नहीं सुनता. दिनभर खटने के बाद भी सब उसे गाली ही देते हैं. एक दिन मुरली प्रसाद यानि संजय दत्त आकर उसे जादू की झप्पी देता है और कहता है- मकसूद भाई… अपुन तुमको थैक्स बोलना चाहता है… तुम मस्त काम करता है. मकसूद कहता है- बस… कर पगले रुलाएगा क्या ?

प्रशासन का काम डांट-डपट और कड़ी फटकार से रेंगता भर है, दौड़ता तो वह तभी है जब उसमें जादू की झप्पी का घोल शामिल कर लिया जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि मंडल के तेवर में जादू की झप्पी का जो घोल है उससे न केवल राजनीति बल्कि आम आदमी को सबसे पहले और भरपूर लाभ मिलेगा.

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