हरिशंकर परसाई के किताबों की रायल्टी अब परिवार के बीच बंटेगी..

सौजन्य-अपना मोर्चा डॉट कॉम..

बिलासपुर. प्रख्यात साहित्यकार हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर मिलने वाली रायल्टी को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला न्यायालय से हुआ है. न्यायालय के आदेश के अनुसार रायल्टी की राशि अब परसाई परिवार के वैध उत्तराधिकारियों के बीच बराबर – बराबर बंटेगी । इसके लिए परसाई की भतीजी अमिता शर्मा ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. अमिता परसाई के सगे भाई गौरीशंकर परसाई की बेटी है जो इन दिनों बिलासपुर में अपने पति सुशील शर्मा के साथ रहती है.

साहित्यकार हरिशंकर परसाई अविवाहित थे. उनकी बहन सीता दुबे का पुत्र यानी भानजा प्रकाश चंद्र दुबे एक वसीयत के आधार पर पिछले कई वर्षों से अकेले ही रायल्टी प्राप्त कर रहा था. परिजनों का कहना था कि स्व.परसाई ने ऐसी कोई वसीयत नहीं की थी, और जो वसीयत बताई जा रही है वह फर्जी है ,लेकिन प्रकाश दुबे ने किसी की बात नहीं मानी और न ही किसी की समझाइश का कोई असर ही हुआ. वह निर्बाध रूप से रायल्टी की राशि प्राप्त करते रहा.

ज्ञातव्य है कि हरिशंकर परसाई ख्यातिलब्ध साहित्यकार रहे हैं । खासकर व्यंग्य विधा को उन्होंने नया स्वरूप दिया. उन्होंने कहा कि जिस व्यंग्य से करूणा न उपजे वह व्यंग्य बेकार है. वे विसंगतियों के खिलाफ़ लगातार लिखते रहे . उन्हें सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार माना जाता है और उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक और चर्चित हैं. परसाई की मृत्यु 10 अगस्त 1995 को हुई. उनकी रचनावली भी छप चुकी है साथ ही अनेक किताबें भी. उनकी रचनाओं पर नाटक भी तैयार हुए और इप्टा तथा अन्य नाट्य संस्थाओं ने उनका मंचन भी किया. उनकी रचनाओं पर प्रकाशकों द्वारा रायल्टी दी जाती है और रायल्टी सिर्फ उनके भांजे प्रकाश चंद्र दुबे को ही मिल रही थीं.प्रकाश का कहना था कि वह आखिरी दिनों तक परसाई जी की सेवा करते रहा है. जब तक परसाई जीवित रहे वे ही रायल्टी प्राप्त करते रहे क्योंकि आय का उनके पास और कोई साधन नहीं था. अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने वसीयत की जिसमें मुझे (प्रकाश दुबे ) को उत्तराधिकारी बनाते हुए रायल्टी राशि प्राप्त करने का अधिकार दिया. वसीयत की यह बात उसने परसाई की मृत्यु के बाद बताई. इस पर किसी को विश्वास नहीं हुआ. उनकी भतीजी अमिता शर्मा ने आपत्ति की और कहा कि रायल्टी राशि पर उसका भी हक बनता है. अमिता ने सोलह वर्ष पहले 2003 में जिला न्यायालय बिलासपुर में एक मामला प्रस्तुत किया. इसमें उन्होंने कहा कि हरिशंकर परसाई को उनकी रचनाओं की रायल्टी से आय प्राप्त होती थी. वे नि:संतान थे. इसीलिए उनकी मिलने वाली रायल्टी राशि पर मेरा भी हक बनता है. साथ ही उन्होंने परसाई की वंशावली प्रस्तुत की. जिसके अनुसार वे दो भाई व तीन बहन थे. अमिता ने कहा कि प्राप्त होने वाली रायल्टी राशि पर इन सभी का हक बनता है. जबकि अभी उनका भांजा प्रकाश चंद्र दुबे ही समस्त राशि ले रहा है.

प्रकाश ने न्यायालय में एक वसीयत प्रस्तुत की और कहा कि उनके मामा हरिशंकर परसाई ने रायल्टी की संपूर्ण राशि प्राप्त करने का अधिकार उसे दिया है. अमिता ने इसे गलत बताया और कहा कि ऐसी कोई वसीयत मेरे बड़े पिता हरिशंकर परसाई ने नहीं की थी. प्रकाश दुबे इस बाबत न्यायालय में पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका और विद्वान न्यायाधीश ने वसीयत को शून्य घोषित कर दिया. साथ ही आदेश में कहा कि वादी अमिता स्व.हरिशंकर परसाई के भाई की पुत्री है. शेष प्रतिवादीगण स्व.हरिशंकर परसाई की बहनों के बच्चे हैं. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार बिना वसीयत किए मृत्यु होने पर भाई, बहन व भाई बहनों के बच्चों को संपत्ति में अधिकार मिलता है. इस प्रकार परसाई के भाई गौरी शंकर परसाई, एवं बहनें श्रीमती रुक्मणी दुबे , श्रीमती सीता दुबे और श्रीमती मोहिनी दीवान को स्व.हरिशंकर परसाई की संपत्ति में बराबर – बराबर का अंश प्राप्त होगा.

ज्ञात हो कि यह मामला 30 सितम्बर 2003 को जिला न्यायालय बिलासपुर में प्रस्तुत किया गया था. फिर उच्च न्यायालय के आदेश पर 28 मार्च 2011 को यह जिला न्यायालय जबलपुर में प्रस्तुत किया गया. इस मामले में अमिता शर्मा की ओर से बिलासपुर के अधिवक्त डी.दत्ता, जी पी कौशिक, संदीप द्विवेदी , देवेश वर्मा, कृष्णा राव , जमीर अख्तर लोहानी तथा जबलपुर के रजनीश पांडेय, संजय शर्मा और आशीष सिंघई ने पैरवी की ।

भारत में कम्प्यूटर और परसाई की वसीयत..

इस मामले में वसीयत को लेकर एक बहुत महत्वपूर्ण और रोचक बात भी सामने आई. जिला न्यायालय में यह भी सवाल आया कि भारत में 1995 में लेजर प्रिंटर आ गया था या नहीं ? हालांकि प्रकाश दुबे ने कहा कि उसे इसकी जानकारी नहीं है. उसने यह स्वीकार किया कि वह भारतीय खाद्य निगम में प्रबंधक था. उसके कार्यालय में वर्ष 2000 के बाद कम्प्यूटर आया तो उसमें डाटमेट्रिक्स प्रिंटर था. जबकि वसीयत नामा लेज़र प्रिंटर से प्रिंट हुआ था. आदेश में विद्वान न्यायाधीश ने लिखा है कि प्रतिवादी एक बड़े पद पर पदस्थ था और उसके कार्यालय में कम्प्यूटर वर्ष 2000 के बाद आया है तो ऐसी दशा में भारत में 10 जुलाई 1995 की स्थिति में लेज़र प्रिंटर से वसीयत प्रिंट करने की बात के संबंध में आशंका पैदा होती है और प्रकाश दुबे की बात बिलकुल विश्वास करने योग्य नहीं लगती. अतः ऐसी दशा में वसीयत नामा शून्य और निष्प्रभावी है ।

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