फिल्म चमन बहार के धमाल से मचा बवाल..

राजकुमार सोनी..

छत्तीसगढ़ में कैसी फिल्में बनती है यह बात किसी से छिपी नहीं है. यदि मुंबई का बड़ा पाव, यूपी-बिहार का लिट्टी-चोखा और मद्रास का इडली-दोसा न हो तो शायद यहां के फिल्मकारों की दुकान पूरी तरह से बंद हो जाय. हर इलाके के हिट मसालों को टिपटॉप कर परोस देना ही यहां के फिल्मकारों का शायद श्रेष्ठ सृजन हैं ? यही एक वजह है कि देश-दुनिया में अन्य भाषाओं की क्षेत्रीय फिल्मों को जो सम्मान मिलता है वैसा सम्मान अब तक छत्तीसगढ़ी फिल्मों को नहीं मिल पाया है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि किसी एक दिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों और उससे जुड़े लोगों को भी सम्मान मिलेगा. लेकिन यह तब मुमकिन हो पाएगा जब आईलवयू वन-टू-थ्री, टूरा नंबर वन-टू-थ्री, रिक्शावाला वन-टू-थ्री और जितेंद्र- मिथुन-गोविंदा ब्रांड फिल्मों पर ब्रेक लगेगा.

बहरहाल आज मैं एक ऐसी फिल्म के बारे में बात करने जा रहा हूं जिसका निर्माण छत्तीसगढ़ में जन्मे एक होनहार फिल्मकार ने किया है. इस युवा फिल्मकार का नाम है अपूर्वधर बड़गैया. अपूर्व ने सारे-गा-मा के सहयोग से एक बेहतरीन फिल्म चमन-बहार बनाई है. नेट-फिलिक्स में रीलिज हुई इस फिल्म को देश-दुनिया से तारीफ ही तारीफ मिल रही है.

छत्तीसगढ़ में मैंने बहुत से अफसर और उनके पुत्रों को सरकारी सेवा में, जमीन की दलाली अथवा ठेकेदारी के गोरखधंधे में देखा है. अपूर्व प्रदेश के वरिष्ठ वन अफसर एसडी बड़गैया के पुत्र है.अपूर्व भी चाहते तो इस तरह के किसी धंधे-पानी में हाथ आजमा सकते थे, लेकिन पिता ने उन्हें अपना रास्ता चुनने की स्वतंत्रता दी. अपूर्व ने उस रास्ते का चयन किया जहां लोगों का दुख-दर्द, उनकी छोटी-छोटी खुशी और उनके सपनों का संसार शामिल है. कला की दुनिया का चुनाव आसान नहीं होता. यह वह दुनिया है जहां आदमी का सपना पल-पल टूटता और बिखरता है. यह दुनिया प्रतिभा और मौलिकता के साथ-साथ जबरदस्त धैर्य की मांग करती है. अगर आपके भीतर धैर्य और मौलिकता का अभाव है तो फिर आपको यश चोपड़ा का बेटा उदय चोपड़ा बनने में टाइम नहीं लगेगा.

बताते हैं कि अपूर्व ने पूरे धैर्य के साथ लगभग सात साल तक फिल्म चमन-बहार के कान्सेप्ट पर काम किया. यदि वे यह धैर्य नहीं रखते तो निश्चित रुप से चमन-बहार जैसी उम्दा फिल्म हमारे सामने नहीं होती. वैसे तो अपूर्व ने देश के प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक प्रकाश झॉ और रोहित जुगरात के साथ बतौर सहायक निर्देशक कुछ फिल्मों में भी काम किया है, लेकिन उनकी फिल्म में इन निर्माता-निर्देशकों के बजाय संई पराजंपे, ऋषिकेष मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य जैसे महान फिल्मकारों का प्रभाव दिखाई देता है.

बहुत छोटी सी जगह, छोटी सी कहानी को संवेदना में गूंथकर देखने लायक बना देना एक बड़ा काम है. अपूर्व ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को दिखाने के लिए किसी भी तरह का ढोंग नहीं किया. उनकी फिल्म का संगीत और फिल्म का एक-एक दृश्य छत्तीसगढ़ की पहचान बनकर उभरता है. फिल्म में टाइटल को दर्शाने के लिए तालाब की दीवार, बाजार की छत, किलोमीटर दर्शाने वाला बोर्ड, सड़क का जबरदस्त इस्तेमाल किया गया है. वैसे तो फिल्म की शूटिंग नया रायपुर, आरंग और मांढर जैसे इलाके में हुई है, लेकिन पूरी कहानी में एक छोटा सा कस्बा लोरमी है. इसी लोरमी में एक लड़का है जो वन विभाग में काम करता है. अपनी अलग पहचान बनाने के लिए वह पान ठेला चमन-बहार खोल लेता है. पहले तो उसका पान ठेला ठीक नहीं चलता, लेकिन जैसे ही एक लड़की पान ठेले से थोड़ी दूर पर बने एक घर में रहने आती है वैसे ही धंधा चमक उठता है. लड़कों का जमावड़ा होने लगता है. पान ठेले के बाजू में ही टिन-टप्पर लगाकर एक शेड तैयार कर लिया जाता है जहां दिन-भर कैरम चलता है और रात को बीयर पार्टी. हर कस्बे में रुतबा- सुतबा दिखाने वाले जवान छोकरे मौजूद रहते हैं. इस फिल्म में रुतबा दिखाने वाले लड़कों की आपसी झड़प के कई शानदार दृश्य है. लड़कों के बीच इधर की उधर लगाने वाले दो किरदार भुवन अरोरा और धीरेंद्र तिवारी की मौजूदगी फिल्म में आनंद देती है. फिल्म के सभी युवा पात्र कुत्ता घुमाने वाली एक लड़की के पीछे लगे हैं. इस दौड़ में शीला भैय्या ( आलम खान ) और अश्विनी कुमार भी शामिल है. लड़की की मां की भूमिका में अनुराधा दुबे और पिता की भूमिका में अनिल शर्मा का काम बेहद शानदार है,लेकिन फिल्म में सबसे जानदार भूमिका निभाई है पान ठेला खोलने वाले जितेंद्र कुमार ने. पूरी फिल्म जितेंद्र के आसपास की घूमती है. उनके चेहरे पर बेबसी, लाचारी के साथ-साथ प्रेम और बेचैनी का अदभुत भाव बांधे रखता है. एक कस्बे में रहने वाले युवक भी अमीर और खूबसूरत लड़कियों से प्रेम करना चाहते हैं. गरीब परिस्थितियों के बावजूद ऐन-केन-प्रकारेण उनकी कवायद जारी रहती है. पूरी फिल्म इसी कवायद के आसपास चक्कर तो काटती है, लेकिन महीन और बारीक किस्म के कस्बाई मनोविज्ञान के साथ. एक रोज पान ठेला चलाने वाला जीतू लड़की को ग्रिटिंग कार्ड देने की कोशिश करता है. जब कई दिनों तक कार्ड नहीं दे पाता तो कार्ड को दरवाजे पर फेंककर चला आता है. कार्ड लड़की के पिता के हाथ लग जाता है और फिर पान-ठेले के आसपास रहने वाले सभी लड़कों की पुलिस जमकर धुनाई करती है. पुलिस अफसर बने भगवान तिवारी लड़के का पान-ठेला तोड़ देते हैं तो रुतबा दिखाने वाले युवक थाने का घेराव कर देते हैं. पान ठेले वाले को थाने से छुड़ाने आता है लड़की का पिता. पान ठेले वाले युवक को चिरकुट नेता बनाने की आजमाइश चलती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.

पूरी फिल्म की कहानी को यहां बता देने से कोई मतलब इसलिए भी नहीं है क्योंकि यह फिल्म अपने फिल्मांकन, गीत-संगीत और कलाकारों के अभिनय से नए सिनेमा का नया व्याकरण और मुहावरा गढ़ती है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र जीतू जब लड़की के मां-बाप से माफी मांगकर वापस लौटता है तो एक बड़े चरित्र में बदल जाता है. यह फिल्म बताती है कि कस्बे में रहने वाले युवाओं के भी सपने है. यह सही है कि वे थोड़े छिछोरे हैं. शराब को लस्सी समझकर चुस्की लेने वालों और समाज की मुख्यधारा में जीने वालों के लिए ऐसे लड़के असभ्य हैं.कीड़े- मकोड़े हैं, लेकिन उनके भीतर भी एक मासूम दिल धड़कता है. चमन-बहार एक छोटे से कस्बे की छोटी सी कहानी है,लेकिन यह कहानी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हम सबके भीतर एक कस्बा बसता है. देश-दुनिया के लोग इस फिल्म को इसलिए पसन्द कर रहे हैं क्योंकि लोग अपने आसपास के नकलीपन से उब चुके हैं. छत्तीसगढ़ के मठाधीश फिल्मकारों को भी यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि अब खेत में हीरो-हिरोइन से ब्रेक डांस और पीटी करवाने का जमाना चला गया है. पिछले कुछ सालों में एक ऐसा दर्शक वर्ग तैयार हुआ है जो नए शिल्प और नई भाषा में बात करने के तौर-तरीके को पसन्द करता है. ऐसे सभी दर्शक इस फिल्म को खोज-खोजकर देख ही रहे हैं.शर्म से डूबकर मरने से पहले छत्तीसगढ़ के तोपचंद फिल्मकारों को भी यह फिल्म एक बार अवश्य देख लेनी चाहिए.

चमन-बहार को लेकर सोशल मीडिया पर एक बहस यह भी चल रही है कि फिल्म पुरुषवादी एप्रोच को दर्शाती है. इस पर भी राजकुमार सोनी ने जवाब दिया है-

यह जो कथित सभ्य समाज का बौद्धिक तबका है वह ठेले-ठाले पर खड़े होकर गरीबी-गुरबत में जीने वाले लड़को को कीड़ा-मकोड़ा और अभद्र ही समझता है, लेकिन मैं उन्हें ऐसा नहीं समझता.

अड्डेबाजी में मौजूद रहने लड़के बहुत से लोगों की नजरों आवारा, गुंडे, छिछोरे और मवाली होते हैं. लेकिन मेरी नजर असली मवाली तो मोदी के भक्त हैं.

अड्डे पर खड़े होने वाले लड़के की एक कहानी होती है. जरूरी नहीं है कि हर कहानी अमीर घरों के एसी रुम से ही निकले.

फिल्म में जो भी संवाद है वह कस्बाई मानसिकता को केंद्र में रखकर लिखे और बोले गए हैं. अब कस्बे के अड्डे में आप स्वयंसेवी संस्था का हेड बनकर भाषा की पवित्रता खोजेंगे तो कोई क्या कर सकता है ?

दो बातें एक साथ नहीं हो सकती. या तो पवित्रता होगी या फिर पाखंड होगा. पाखंड वाली पवित्रता नहीं हो सकती.

दिक्कत यह है कि पूरी दुनिया में नए मुहावरे और शिल्प के स्तर पर हो रहे बेहतर कामों को पाखंडी लोग अपने बनाए हुए फ्रेम से ही देखते हैं. ऐसे सभी पाखंडियों को कहना चाहता हूं- फिल्म कोई ईंट का सांचा होती नहीं जो आपके बनाए हुए फ्रेम हिस्सा बन जाएगी. हर फिल्म में बंद मुठ्ठी और फ्रेम में तय की गई नारेबाजी नहीं देखनी चाहिए. मैं अड्डे में खड़े रहने वाले लड़कों से यह अपेक्षा नहीं पालता कि वे पान खाने के पहले या सिगरेट पीने के पहले नागार्जुन की कविता पढ़े.

कई बार फिल्म को यह सोचकर भी देख लेना चाहिए कि जो कुछ भी घट है वह क्यों घट रहा है?

अरे…कस्बे में यह सब घट रहा था और हम बेवकूफ मोदी के चक्कर में उलझे हुए थे. संवेदना की भी अपनी जगह और गुजाइंश बनी रहनी चाहिए. महिलाओं की मुक्ति के लिए वाहिनी खोलने वाले इस फिल्म के उस आंटी की बात ही नहीं कर रहे हैं जो फिल्म के नायक को थाने से निकालकर खुली जीप में बिठाकर शहर घुमाती है. यह कैरेक्टर भी एक सशक्त नेत्री का करेक्टर है. यहां मुक्ति वाहिनी और मोर्चे की डिमांड पूरी होती है… लेकिन उन्हें दिक्कत यह कि हिरोइन ने क्यों कुछ नहीं बोला ? लोग उसका पीछा क्यों करते हैं ?

हमने जो कुछ भी अपने संघर्षों से पाया है तो हम वैसा सोचते हैं, लेकिन अक्सर हम यह नहीं सोचते कि एक बड़ा वर्ग क्या सोचता है. हम लेखक बन जाते हैं. कलाकार बन जाते हैं सामाजिक कार्यकर्ता बन जाते हैं. नहीं बन पाते तो सिर्फ़ जनता की भाषा और भावना.

हम लिखते तो है लेकिन हमारा लिखा हुआ चुपचाप चला जाता है. हम सृजन करते हैं लेकिन कोई हलचल नहीं मचती. हमें यह अवश्य सोचना चाहिए कि हम सब भी दस-बीस सौ पचास लेखकों से ही क्यों घिरे हुए हैं. हम जनता के बीच क्यों नहीं है ? हमें जनवाद का ऐसा कंबल भी नहीं ओढ़ना चाहिए जिसमें छेद ही छेद हो.

अब जो सिनेमा बन रहा है उसकी भाषा बदल चुकी है. मुहावरा बदल चुका है. अगर नेटफ्लिक्स और एमेजॉन में उपलब्ध अन्य फिल्में देखेंगे तो पाएंगे कि चमन-बहार लाख गुना बेहतर है. अब हमें सिंगल थियेटर की सोच बदल देनी चाहिए. अब सिनेमा आपके घर के हर कमरे में घुस आया है.

पुरुषवादी सोच…महिलावादी सोच का कोरस चलता रहे, लेकिन इस वर्ग भेद से इतर कभी-कभी इंसानी सोच…उसकी संवेदना का समूह गान भी होना चाहिए.

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