फारेस्ट की ‘पद्मावति’ फ्लाप: बेचारी चल बसी

बिलासपुर. फारेस्ट का आपरेशन पद्मावती, किसी फ़िल्मी ड्रामें से कम नहीं था। वन अफसरों के द्वारा आपरेशन पद्मावती को लेकर गढ़ी गई कहानी फ़िल्मी स्क्रिप्ट से भी शानदार थी। इस स्क्रिप्ट को लिखने वाले अफसर ने रेस्क्यू की सफलता को किसी फिल्म के सुपरहिट होने जैसे सेलिब्रेट भी किया। खूब वाहवाही बटोरी, जमकर आपरेशन पद्मावती की ब्रांडिंग की गई लेकिन इन सबके बीच ‘पद्मावती’ दर्द से कराहती- कराहती इस दुनिया से शुक्रवार को रुखसत हो गई। ‘पद्मावती’ की मौत कई सवाल छोड़ गई है, जिसका जवाब शायद विभागीय अमला कभी ना दे पाए।नवम्बर महीने की 12 तारीख को सूरजपुर वन मंडल के प्रतापपुर वन परिक्षेत्र स्थित ग्राम नवाधककी में झुण्ड से बिछड़ी एक हथनी 18 फिट गहरे गढ्ढे में गिरती है. आस-पास का इलाका उसके दर्द से कराहने की आवाज से सिहर उठता है. मगर उसकी चिंघाड़ वन अफसरों को सक्रीय करने में 36 घंटे से ज्यादा का वक्त लगा देती है। 36 घंटे बाद यानी 14 नवम्बर को सरगुजा रेंज के वन अफसर दो क्रेन के साथ मौके पर पहुंचते हैं, हथनी को गढ्ढे से बाहर निकालने के लिए शुरू होने वाले रेस्क्यू आपरेशन का मौके पर नामकरण किया जाता है। आपरेशन ‘पद्मावती’, हाल ही में विवादों से घिरी संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ से प्रभावित वन अफसर नामकरण की प्रक्रिया के बाद तड़पती हथनी को बाहर निकलवाने की कवायद शुरू करते हैं। इस कवायद में 200 वन कर्मी, हाथी मित्र दल, पुलिस और ग्रामीण। जरा सोचिये मौके पर क्या संख्या रही होगी ? मगर ये संख्या विभागीय है, मौके से मिली तस्वीरें कुछ अलग ही हकीकत कहती हैं। इस रेस्क्यू आपरेशन का ये पहला झूठ, दुसरा झूठ जिसमें हथनी को बचाने के लिए विभागीय संवेदना और श्रम का जिक्र किया गया वो भी तस्वीर में दिखाई पड़ता है। चंद वन कर्मी वो भी मोबाइल पर तस्वीरें खींचते हुए, चूँकि सोशल साइट्स पर वन अफसरों को पीठ थपथपवाने के लिए तस्वीरों की दरकार होती है. लिहाजा रेस्क्यू में पहुंचे कुछ कर्मचारी कभी सेल्फी-सेल्फी खेलते रहे तो कभी अफसर के लिए तस्वीर और वीडियो बनाते दिखे । वैसे भी हथनी को क्रेन से बाहर निकाला जाना था इसलिए भीड़ का हिस्सा बने अमले को कुछ तो करना ही था सो मोबाइल-मोबाइल खेलते रहे।

इस आपरेशन में हथनी की जान से ज्यादा सुर्खियां बटोरने पर ध्यान केंद्रित करने वालों ने जिस बेरहमी से क्रेन के जरिये रेस्क्यू की सफलता पर गाल बजाया वो बेहद शर्मनाक रहा। जानकारी का अभाव, अप्रशिक्षित अमला जिस तरीके से आपरेशन पद्मावती में शामिल हुआ वो इस बात का प्रमाण है की वन्य जीवों को लेकर संवेदनाये मरी हुईं हैं। इस आपरेशन में शुरू से लेकर पद्मावती की मौत के बीच कई खामियां जिन्हे तस्वीरें प्रमाणित करती हैं। दर्द से चिंघाड़ती हथनी को करीब-करीब 41 घण्टे बाद गढ्ढे से बाहर निकालकर रमकोला ले जाया गया जहां उसका एलोपेथी के साथ-साथ प्राकृतिक उपचार का दावा किया गया । विभाग ने कर्नाटक से डाक्टर बुलाकर घायल हथनी के बेहतर इलाज का शोर भी मचाया। हालांकि मौके पर हथनी की स्थिति को देखकर वन अफसर पहले ही अपनी खाल बचाने का इंतज़ाम कर चुके थे, उन्होंने मौके पर ही हथनी का पिछले पैर टूटने के साथ रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट की बात डाक्टर पीके चंदन के हवाले से कह दी थी।
इस पुरे घंटनाक्रम से एक बात तो साफ़ हो गई है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री या फिर वन मंत्री भले ही वन्य जीवों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय देते हों मगर विभागीय अमला अपनी कार्यशैली से सरकारी मंसूबे पर ना सिर्फ पानी फेर रहा है बल्कि निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए मूक पशुओं को मौत के मुंह में धकेल रहा है। राज्य में हाथी की मौजूदगी को समस्या का नामकरण करके वन अफसर केवल ड्यूटी बजा रहे हैं । नतीजा किसी दिन हाथी के मरने की खबर तो कभी ग्रामीणों के कुचले जाने का रुदन सुनाई पड़ता है । विभाग के पास कोई कार्य योजना नहीं, बस सारा तमाशा उम्मीद में हो रहा है। 41 घंटे बाद गढ्ढे से बाहर निकाली गई ‘पद्मावती’ कहीं-ना कहीं वन अफसरों की असंवेदनशीलता की भेंट चढ़ गई। उसकी जान बचाई जा सकती थी, अगर उसे समय पर गढ्ढे से बाहर निकालकर इलाज मिल जाता लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सरकार को इस मामले में गंभीरता से विचार करना होगा क्यूंकि मनमर्जी से हो रहे काम और चंद अफसरों की मनमानी से अब हाथी की समस्या का चेहरा भयानक दिखाई पड़ने लगा है। जो अफसर कल तक पद्मावती की ब्रांडिंग का शोर मचा रहे थे उसकी मौत की खबर से खामोश हैं, शायद किसी दूसरे झूठ की कहानी लिखने में व्यस्त हैं। इस मामले में कुछ समाजसेवी संगठन और वन्यजीव प्रेमियों ने कल ही मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर इस मौत पर जिम्मेदारी तय करने और कार्रवाही की मांग की है।

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